न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ॥10॥
न-नहीं; द्वेष्टि-घृणा करता है। अकुशलम्-अप्रिय; कर्म-कर्म; कुशले-प्रिय; न न तो; अनुषज्जते-आसक्त होता है; त्यागी-त्यागी; सत्त्व-सत्वगुण में; समाविष्ट:-लीन; मेध वी-बुद्धिमान छिन्न-संशयः-वे जिन्हें कोई संदेह न हो।
BG 18.10: वे जो न तो अप्रिय कर्म को टालते हैं और न ही कर्म को प्रिय जानकर उसमें लिप्त होते हैं ऐसे मनुष्य वास्तव में त्यागी होते हैं। वे सात्विक गुणों से संपन्न होते है और कर्म की प्रकृति के संबंध में उनमें कोई संशय नहीं होता।
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सात्विक त्याग में स्थित लोग प्रतिकूल परिस्थितियों में दुखी नहीं होते और न ही ऐसी परिस्थितियों के प्रति आसक्त होते हैं जो उनके अनुकूल होती हैं। वे सभी परिस्थितियों में केवल अपने दायित्वों का निर्वहन करते हैं और न तो वे सुखद समय में प्रसन्नता व्यक्त करते हैं और न ही कष्टमय जीवन में खिन्नता प्रकट करते हैं। वे उस सूखे पत्ते के समान नहीं होते जो सभी ओर से आने वाली हवा के झोकों से इधर-उधर हिलते रहते हैं बल्कि इसके विपरीत वे समुद्र में स्थित उन सरकंडों के समान होते हैं जो प्रत्येक उठती हुई लहर को समान रूप से सहन करते हैं। अपने समभाव को बनाए रखते हुए क्रोध, लालच, ईर्ष्या और मोह के वश में न होकर वे परिस्थितियों की लहरों को अपने आस-पास उठते और गिरते हुए देखते रहते हैं। बाल गंगाधर तिलक भगवद्गीता के विद्वान और प्रसिद्ध कर्मयोगी थे। महात्मा गांधी के परिदृश्य पर आने से पूर्व वे भारत के स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी थे। जब उनसे पूछा गया कि भारत के स्वतंत्र होने पर वह कौन-सा पद ग्रहण करना चाहेंगे-प्रधानमंत्री या विदेशमंत्री का? उन्होंने उत्तर दिया कि "मेरी महत्वाकांक्षा विभिन्न तर्क पद्धतियों पर पुस्तक लिखने की है। मैं इसे पूरा करूँगा।" एक बार पुलिस ने उन्हें शांति भंग करने के आरोप में बंदी बना लिया। तब उन्होंने अपने मित्र को कहा कि वह यह ज्ञात करें कि उन्हें किस धारा के अंतर्गत बन्दी बनाया गया और कारागार में आकर उन्हें इस संबंध में सूचित करें। जब उनका मित्र लौट कर आया तब वे कारागार के कक्ष में गहन निद्रा ले रहे थे। एक अन्य अवसर पर जब वे अपने कार्यालय में कार्य कर रहे थे तब उनके लिपिक ने उन्हें सूचित किया कि उनका बड़ा पुत्र गंभीर रूप से बीमार है। भावनाओं में बहने के बजाय उन्होंने लिपिक से डाक्टर को बुलाने को कहा। आधे घंटे के पश्चात उनके मित्र ने वहाँ आकर उन्हें वही सूचना दी। तब उन्होंने कहा कि "मैंने उसे देखने के लिए डाक्टर को बुलाने के लिए कह दिया है। इसके अतिरिक्त मैं और क्या कर सकता हूँ?" इन घटनाओं से विदित होता है कि वे अप्रिय परिस्थितियों में भी धैर्यवान बने रहे। वे अपने कार्यों को विचलित हुए बिना कुशलतापूर्वक संपन्न करने में इसलिए सफल रहे क्योंकि वे आंतरिक रूप से शांत चित्त थे। यदि वे भावनात्मक रूप से निराश हो जाते तब वे कारागार में कैसे चैन से सो पाते और अपने काम में ध्यान दे पाते।